मेरा धर्म मेरा विचार मेरा व्यवहार और मेरा संस्कार

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मेरा धर्म मेरा विचार मेरा व्यवहार और मेरा संस्कार

 व्यक्ति,  विचार, व्यवहार और संस्कार ये चार सीढ़ियां हैं जिन पर चढ़ कर हम धर्म की चर्चा को समझ सकते हैं

पहला प्रश्न है की क्या धर्म केवल धारण किया हुआ है यानी की धर्म वही है जो व्यवहार मैं हैं, और अगर मेरा व्यवहार मेरे संस्कार आप के साथ मेल नहीं खाता तो मैं दुविधा में हूँ; यह दुविधा हमें अपने धर्म को समझने में सहायक हो सकती है

मसलन क्या घृणा के बीच से कभी भी स्नेह पैदा हो पाएगा शायद नहीं लेकिन कोई भी धर्म दूसरों से तुलना करके अपने को श्रेष्ठ बताकर धर्म रहता ही नहीं है. किसी  को नीचा दिखा कर हम ऊपर उठ ही नहीं सकते यही कारण है इधर धर्म की चर्चा केवल सम्प्रदाय और स्थिति विशेष की संस्कृति तक सीमित रह जाती है

चर्चा बहुत रोचक है लेकिन हमारे विचार और हमारे व्यवहार के विरोधाभास में हमारी संस्कारों का जो प्रदर्शन होता है उस पर चर्चा करनी आवश्यक है आखिर किसी भी धर्म में किसी को दुखी देखकर  सुख पाने की संभावना नहीं बताई गई है सर्वे भवंतु सुखिना: सर्वे संतु निरामया, की जो भावना है वो ही सच्ची धार्मिक भावना है

हिंदू धर्म में बड़ी व्यापक कल्पना की गई है के सभी प्राणियों का सुख हो सभी प्राणी  निरोगी हो ऐसा नहीं है के राम शिव कृष्णा या हनुमान के मानने वाले सूखी हो. बाकी नहीं

और केवल मनुष्यों के सुख की बात नहीं कही गई बल्कि सभी प्राणियों के सुख की कामना की गई

धर्म का सही उद्देश्य  ऐसी समाहित कामना और ऐसे समाहित समाज के  सपने को सार्थक करना ही है

चर्चा रोचक थी लेकिन शायद थोड़ी विषय से भटक गई संवेदना का संस्कार सुनिश्चित करता है कि हम दूसरों के दुख को अपना माने और वो दुख किसी पहचान या किसी वर्ग अथवा जाति के अंकुश से मुक्त हो

ऐसा नहीं हो कि मेरी जाति या मेरे समुदाय अथवा मेरे  राष्ट्र की लोगों के दुख से तो मैं दुखी हूँ लेकिन दूसरों के दुख से मुझे दुख ना हो इसीलिए गाँधी ने अहिंसा के का अर्थ किसी को शब्दों से दुख पहुंचाने को भी कहा था हिंसा  केवल भौतिक नहीं है वैचारिक भी है ऐसा  धर्म हम धारण कर ले तो शायद किसी प्रोफेसर को इस बात के लिए दंडित न किया जाए की “नाम अलग अलग है ईश्वर तो एक है “”

बहुत आवश्यक है कि समाज में चर्चा हो और हम धर्म के सही रूप को समझें और कोशिश करें की समाज को जोड़ने का काम धर्म करें हर धर्म जो मान्यताओं से जुड़ा है कुछ ना कुछ विकार समय के साथ आते हैं लेकिन जो धर्म निरंतर है शाश्वत है सार्वभौमिक हे उस धर्म को हम सब अपनाये और अपने जीवन में सात्विकता लाए ऐसी प्रार्थना

इस तरह की कल्पना शायद  हमें वास्तविकता से दूर ले जा रही है हाँ मैं जिस समाज में हम रहते हैं उसी समाज में रहकर धर्म की मूल भावना को विद्यमान करना होगा

मैं रोज़ हवन करता हूँ लेकिन ज़ो  ऐसा नहीं करते वो शायद मुझसे ज्यादा पवित्र और पावन विचारों के धारक हो सकते हैं इसलिए मुझे संबल मेरी रूढ़िवादिता यह मेरी रीती रिवाजों से नहीं मिल  सकता कोई भी धर्म किसी भी वर्ग को एकरूपता नहीं दे सकता

सभी हिंदू या मुसलमान एक जैसे तो हो ही नहीं सकते तो फिर धर्म के आधार पर वर्गीकरण करके हम अपनी सोच कैसे आगे बढ़ा सकते  है

 एक स्वास्थ्य समाज संवेदना देता है संस्कार भी देता है ओर साहस भी देता है की हर व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से अपने विचारों को आगे बढ़ाएँ बिना किसी को चोट पहुंचा कर

 मेरी सच्चाई आप को आहत करती है तो मैं झूठ तो नहीं बोल सकता तो फिर क्या करूँ

ये  दुविधा बहुत जटिल है दिनकर ने कहा है पाप का भागी नहीं है केवल व्याध,  जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध

आज समय आ गया है की अपनी जमीन पर खड़े हो अपने विचार अभिव्यक्त करें और अपनी पहचान संभावित रूप से संवेदनशील तरीके से सोचने वाले व्यक्ति की अर्चना में शामिल करें

 धन्यवाद

anilg

Visiting Faculty, IIM Ahmedabad & IIT Bombay and an independent thinker, activist for the cause of creative communities and individuals at grassroots, tech institutions and any other walk of life committed to make this world a more creative, compassionate and collaborative place