an ode to kaali ma

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झीलों की गहरायी
नदिओं का वेग
किनारे  पर उगे  पेड़ों की छाँव
पत्थरों को तोड़ने का अभिमान
सब कुछ बाहर  ही नहीं है,
भीतर भी है
क्षमा  का अभिप्राय,
उसके पैरों में समर्पण
बिना हेतु पलायन
और छाया को पीछे छोडने  की वेदना
माँ, तू बहती जा ,
मुझे मेरे पास रहने को
कुछ चौंटे    Ã Â¤Â¦Ã Â¥â€¡Ã Â¤Â¤Ã Â¥â‚¬ जा

Anil K Gupta

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